Friday 3 August 2018

कुल्लड़ में चाय ....

बात ईसा पूर्व की है...लगभग 2700 वर्ष...। चीन के सम्राट के हाथ मे गर्म पानी का प्याला था और मचलती हवाओ ने कुछ पत्तो को अपने संग लाया और उसे सम्राट के प्याले में डुबो दिया। पर सूखे पत्ते की गुस्ताखियां देख जब तक सम्राट अपने चेहरे का रंग बदलता गर्म पानी ने अपना रंगत बदल दिया और वाष्प ने अपने संग विशेष खुसबू से सम्राट को आनंदित कर दिया। एक चुस्की पीते ही वह समझ गया कि वह भविष्य के लिए एक और पेय पहचान लिया है और फिर चीन से पूरी दुनिया में फैल गया।
             भारत मे जैसे हर चीजे अंग्रेजो की देन मानी जाती है वैसे ही यह पेय भी उन्ही का देन माना जाता है....उससे पूर्व असमी जो पत्तियों को खौला कर पेय बनाते थे उसे क्या कहा जाय पता नही....?जब तक आप किसी भी चीज का व्यवसायिक दोहन नही करते है तो मुफ्त तो मुफ्त होता है। तो अंग्रेजो ने इसका व्यवसायिक दोहन कर इसके साथ अपना नाम जोड़ लिया ।
           उस समय इसे जो भी कहते पता नही....लेकिन आजकल इसे "चाय" कहते है। बाकी तो आप सभी  इससे परिचित है। इसमें खास कुछ नही है.....बस आज सुबह-सुबह कुल्लड़ में चाय चाय मिल गई..।। अब कुल्लड़ धीरे-धीरे विलुप्त ही होता जा रहा है। एक बार तत्कालीन रेल मंत्री ने 2004 में ट्रेन में मिट्टी के कुल्लड़ चलाया भी लेकिन कुछ सालों बाद मंत्रीजी का राजनैतिक जीवन मिट्टी में मिल गया और आगे चलकर रेल ने भी इस मिट्टी के प्याले से किनारा कर लिया। खैर.....।।
           आज सुबह-सुबह कुल्लड़ देख चाय नही जैसे कुल्लड़ ने अपनी ओर खींच लिया। प्याले में चाय भरते ही चाय ने अपनी तासीर बदली और मिट्टी की सौंधी खुसबू चाय के साथ मिलकर उसके स्वाद को एक अलग ही रंग दे दिया हैं।जो आपको किसी और कप में नही मिल सकता।
           जब धरती ही स्वयं के अस्तित्व के लिए संघर्षरत दिख रही हो तो कुल्लड़ का क्या कहना..?अतः सुबह-सुबह जब सिंधु घाटी सभ्यता से  यात्रा कर पहुची कुल्लड़ फिर आपके हाथ लग जाये और जो सभ्यता के मध्याह्न से प्रचलित पेय से लबालब भरा हुआ हो तो आप चाय के हर चुस्की के साथ सभ्यताओ के बदलते जायके को महसूस करने की कोशिश कर सकते है।इस एक प्याले में जब जीवन के मूलभूत पंच तत्व -थल(कुल्लड़) ,जल (चाय)  पावक( इसकी गर्माहट ), गगन  के तले ,समीरा(चाय का वाष्प) जब एक-एक चुस्की के साथ आप के अंदर समाहित होता है।तो आप महसूस कर सकते है कि  एक प्याला कुल्लड़  से भरा चाय आपको कितने ऊर्जा  से ओतप्रोत कर देता है। 
       जगह और स्थान कोई भी हो मिट्टी में बिखरे आनंद को ढूंढे ...नाहक क्षणों को मिट्टी में न मिलाये।सभ्यता के आदिम रूप जहां बिखरे है वही सभ्यता के भविष्य का रूप है..ये आप समझ ले।तो फिर एक प्याला चाय कुल्लड़ में मिल जाये तो भूत और भविष्य एक साथ एकाकार हो जाते है और ये सर्वोत्तम आनंद का क्षण है....एक कप कुल्लड़ में चाय... है कि नही??
              अंत मे हरिवंश राय बच्चन की "प्याला" शीर्षक कविता की दो पंक्तियां-
            मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
            क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
   

Tuesday 19 June 2018

...ओ मेरी महबूबा...।।

मनसुख आज तैश में था। गर्मी की उफान उसके चेहरे पर उभर उभर कर आने वाले पसीनो के बूंदों में झलक रहा था। वह कुट्टी काटने वाली मशीन को जोर जोर से घुमा रहा था। बीच बीच मे वह घास की बंडल मशीन में डालते समय रह रह कर पसीने पोछता और गुनगुनाता-- महबूबा...महबूबा...ओ मेरी महबूबा
काका वही बगल में पेड़ की छाया में दोपहरी से लड़ने के लिए लेटे हुए है।
काका-का रे मनसुख ई मेहरारू के काहे इस दोपहरिया में याद कर रहा है...
मनसुख झेप गया। न काका वो तो हम महबूबा के बात कर रहे है।
काका- अरे अब कोनो दोसर मेहरारू तो नही ले आये।
मनसुख- का काका तू भी बुराड़ी में अंट-शंट बकते रहते हो। तुमको कुछो देश दुनिया का पता रहेगा तब न समझोगे।
काका- का रे अब ऐसा का हो गया
मनसुख- कश्मीर में महबूबा की सरकार गिर गई है तुमको कुछो पता है।
काका के चेहरे पर मंद मुस्कुराहट उभर गया और बोला- उ तो हम पहले ही बोले थे कि ई साँप-छुछुन्दर एके बिल में कब तक रहेगा। तब तो तू बाद खुश होकर बता रहा था कि अब कश्मीर फिर से स्वर्ग बन जायेगा।ई सरकार बड़ा सोच समझ के कुछ करती है। फिर का हुआ अचानक की भाग गए कश्मीर से।
मनसुख- देखो काका ई सब राजनीति की बात है...तुमको समझ नही आवेगा।
काका-यही तो हम भी कह रहे है कि ई सब राजनीति की बात है तू नाहक खुश हो रहा है।तू ही बता तू काहे खुश है?
मनसुख-देखो काका अब कश्मीर की हालत से समझौता नही कर सकते। वहाँ अब स्थिति ज्यादा खराब हो गई है।
काका-तो अब तक का खाली महबूबा...महबूबा कर के झाल बजा रहे थे। किसने रोका था कश्मीर को सुधारने से।अब तक तो लगता है यही गा रहे थे...महबूबा मेरे जो तू नही तो कुछ भी नही है...जो तू है तो कश्मीर कितनी हँसी है.....और अब अचानक..।
मनसुख-काका ई कोनो बिहार की राजनीति नही है जो तुमको सीधे-सीधे समझ मे आवेगा।यहां बहुत कुछो सोचना पड़ता है। बगले में पाकिस्तान मुँह बाये खड़ा है। तुम का समझोगे..?
काका- बेटा ई पाकिस्तान की झुंझना सुनते - सुनते बाल सफेद हो गए और तुमरो सरकार को देख लिया। ना कुछो मिले तो बस पाकिस्तान और धर्म खतरे में है का ढोल पिटने लगो। तुम कह रहे थे न देखना अब कैसे उग्रवादी सब दुबक जायेगे लेकिन उ सब तो वैसे निकल रहे है कि जैसे कुकुमुता का छता निकल रहा है। फिर कुचलते काहे नही। बस तुम सब ढिढोरा पीटते रहो।इससे बढ़िया तो मौनी बाबा थे कुछ तो करते होंगे बेशक कहते नही....।
मनसुख-काका तुम का समझोगे सब तो वही सब का किया धरा है।
काका-तो इनको मौका भी तो इसी लिए दिया था।अब न कुछ कर पाए तो बस बहाने बनाओ..।
मनसुख- काका तुम कुछ भी कह लो लेकिन ई जो कुछ भी करते है सोच समझ कर करते है, देशहित पर ये समझौता नही कर सकते।
काका-बेटा तुम सब यही सोचकर खुश रहो...आखिर घुट्टी जो पी रखे हो...यह तो सही है कि सोच समझ कर करते है ,लेकिन इसमें हित किसका है यह तो समय ही बताएगा। लेकिन सब तो यही कहेंगे इतने चौड़े सीने वाले को महबूबा ने पटकनी दे दी और ये पूंछ दबा कर कश्मीर से भाग गए लेकिन तुम जैसे मूढ़ तो बस अपने नशा में चूर रहो...।
मनसुख को काका की इन बातों का जैसे कोई असर नही हो रहा और वह अपने धुन में गुनगुना रहा है--महबूबा....महबूबा....ओ मेरी महबूबा...।।

Tuesday 2 January 2018

नव वर्ष मंगलमय हो.......

                  सब कुछ यथावत रहते हुए भी , खुश होने के कारण तलाश करते रहे। बेशक आप इस बात से वाकिफ है कि कैलेंडर पर सिर्फ वर्ष नए अंकित होंगे , लेकिन वो स्याही और पेपर यथावत जो चलते आ रहे है वही रहेंगे। फिर भी एकरसता के मंझधार में फसने से बेहतर है कि इन लम्हो को ज्वार की भांति दिलो में उठने दे और कुछ नहीं तो वर्ष की पहली किरण में  मंद बयार के साथ पसरी हुई ज़मीन पर ओंस के बूंदों पर झिलमिलाती किरणे प्रिज्म सदृश्य कई रंग बिखेर रहा हो उसको देख आनंदित होने की कोशिश करे। कही दूर मध्यम और ऊँची तान में कोई चिड़िया चहक रही हो तो दो मिनट रूक कर उसे मन के राग के साथ आंदोलित होने दे। उससे छिटकने वाली राग को बाढ्य नहीं अंतर्मन के संसार में गूँजने दे।
                        सिमटती दुनिया के एकरुपिय निखार में बहुत कुछ समतल हो गया है जहाँ ख़ुशी और अवसाद के बीच में स्पष्ट फर्क करने में भी अब कठनाई है।
हर वक्त याथर्थ के धरातल को ही टटोलना जरुरी नहीं है, कुछ पल ऐसे ही दिनों के बहाने कल्पना के सृजनलोक में विचरण कीजिये। 
नव वर्ष मंगलमय हो.......

आदिपुरुष...!!

 मैं इसके इंतजार में था की फ़िल्म रिलीन हो और देखे। सप्ताहांत में मौका भी था। सामान्यतः फ़िल्म की समीक्षा फ़िल्म देखने से पहले न देखता हूँ और न...