Sunday 11 September 2016

अइलन बहार है ....

                         मनसुख को लगता है जैसे किसी ने झकझोर दिया। वह अकचकाकर इधर -उधर देखने लगा। किन्तु उसे दूर खेत की मेड ठीक करते बस काका दिखाई दिए जो बाढ़ से बर्बाद हुए खेतो को सुधारने में लगे थे। मनसुख हौले से अपने आप पर मुस्कुराया -अरे वाह  शायद वो सपना देख रहा था। उसने अपने राज्य में सुशासन के कई साल देख चुका था। तभी तो  मनसुख वहां टिक हुआ था अपने गांव में तो इसका तो अर्थ यही था की सुशासन जारी था नहीं तो मनसुख बाकी कलुआ और बौका की तरह कमाने दिल्ली बॉमबे नहीं भाग गया होता।       
                     खेत में काम करते-करते थक कर वही बगल में एक पेड़ के निचे सुस्ताने को बैठ गया की आँख लग गई। देखता है  बहुत बड़ा परिवर्तन लग रहा है। लोगो में असीम ख़ुशी दिखाई पर रही है। कितने वर्षो के बाद जनता का सेवक एकांतवास से दिव्यज्ञान की प्राप्ति के बाद लोगो का कल्याण हेतु चहारदीवारी को लांघ खुले आसमान में आज विचरण करने आये।मनसुख पता नहीं कैसे अपने-आपको उस भीड़ में घिरा पाया।  बाहर आते ही फूल मालाओ के साथ भक्तो की कतार और  महानुभाव ने दिव्य उद्घोषणा किया -परिस्थिति वश ऐसे भार बहुतो के ऊपर आ जाता है। सुशासन की जिस परिपाटी को इतने मुश्किल से खीचां है उसकी लकीर और गहरी करने में उनका योगदान का प्रयास अब होगा। उनके गुरु और नेता सर्वविदित है इसमें कहने की क्या जरुरत है। मनसुख को पता है की उसके गांव का भुवना किस गलती से आज तक जेल में है ये तो उसको भी पता नहीं है। लेकिन अभी भी है क्योंकि प्रसाशन बहुत सख्त हो रखा है ऐसा सभी कहते  है। किन्तु गांव के लोग तो उसके बारे भी बात-चित करने से कतराता है पता नहीं लोग क्या समझ बैठे। किन्तु मनसुख यहाँ का नजारा देख थोड़ा हतप्रभ है कि वाकई ऐसा भी होता है। मनसुख परिस्थितवस समझदार मूर्खो की भीर या भीड़ में शामिल समझदारो के बीच फर्क कर पाने में अपने-आपको असहज पा रहा था। 
                      मनसुख को न्यायपालिका पर बहुत विश्वास था। आज भी है ,किन्तु समझ नहीं पा रहा था की जो पढ़ा या बड़े बूढ़ों से जाना वो क्या गलत हो रहा था। उस भीड़ में मनसुख को कही काका नहीं नजर आ रहे थे ,नहीं तो काका के सर पर अपनी जिज्ञासा का भार लाद देता। आखिर जो सभी को दिख रहा था शायद कानून आखों पर पट्टी होने के कारण नहीं देख पाया। तभी तो अपना देश महान है। आखिर जनतंत्र है ये तो मनसुख को भी पता है और ये भी जानता है की जिसके पास जन है फिर तंत्र भी  तो वोही चलाएगा। मनसुख वैसे बहुत इतना सोचने को तत्पर नहीं रहता लेकिन उस स्वागत काफिले में खुद को को पाकर दिमाग में खयाल उछाल-कूद मचने लगा। कुछ दिन पहले तक मुह और नाक सूंघती उनके अधिकारी क्या ये नहीं सूंघ पा रहे थे की कि अब उनके किये धरे पर कोई बाल्टी में पानी भर तैयारी में लगा है। खैर इसमें वो क्या करते ,न्याय मूर्ति के रूप में स्थापित विद्य-गण की सेना न्याय की ही दुहाई दे, तो कौन किसके साथ न्याय कर रहा है और कौन अन्याय कहना मुश्किल। 
                      किन्तु नजारो से मनसुख मोहित था कितने गाडियो का काफिला उसकी यहिके से गिनती भी नहीं कर पाया ,पास आने की होड़ ऐसे की जो छू ले समझो उसको ही जन्नत मय्यस्सर हो गया। अब देखो की कैसे बहार आने वाला है अब तो लगता है की अपना ही दिन और अपना ही रात। देखे कब अब किन्तु तब तक मनसुख अपने आपको अपने गांव के छाँव में पड़ा पाया किन्तु कुछ बेवस सी आँखे उसे उस भीड़ अब भी जेहन में घूम रहा था। किन्तु काका को आते देख धीरे धीरे गुनगुनाने लगा -
अइलन  बहार है  भाई अइलन बहार है
कौन अब राजा यहाँ रोज तकरार है 
चलिहे फटका अब जाने कौन जहिये 
बीते कल के अब दिखे परिछाह है 
अइलन  बहार है  भाई अइलन बहार है.......     

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