Sunday 28 August 2016

ककरा के घरे भड़े आयलहँ रे बदरवा....

                                         टिप -टिप बर्षा पानी , अगर आप कही सोच रहे कि  मनसुख कोई गीत नहीं गा रहा है तो ऐसा कुछ नहीं । वो तो बस अपने घर के  छप्पर से टपकते बर्षा के बूंदो को देखते हुए ऊंट की तरह गर्दन खिड़की से बहार कर  आसमान को निहारने की कोसिस में था। काफी समय के बाद आज बदरा रानी कुछ कम छमक रही थी ,नहीं तो कुछ दिनों से ऐसा लग रहा था की इंद्र के कोप से कही दुखी हो सारे के सारे बदरा कही धरती पर तो बसने के फ़िराक में तो  नहीं है। खैर मनसुख को ये समय कुछ गुनगुनाने का लग  रहा था। आखिर इसी लिए तो दुख और सुख  सभी के राग बने है। वैसे कोई वियोगी भाव मनसुख के मन पर हावी नहीं हो पाते और गीत उसके फितरत का भाग। बाकि वो मेघ-मल्हार है आ कोनो फ़िल्मी गीत उससे उसको कोनो मतलब नहीं है। 
                              सो  अब वो भी धीरे से बुदबुदाने लगा टिप टिप बरसा पानी पानी में आग लगाए। अब पानी में आग लगे न लगे मनसुख को पेट में भूख की आग के धुएं अवश्य उठने लगे थे। कल दोपहरिया में जो खाया अभी तक उसके बाद उसे कुछ नसीब नहीं हुआ। काका तो न जाने कबे विहाने उठ के बोरिया का बरसाती बना के छप-छप निकल गए कह कर कि आज कुछ राहत सामान बंटे वाला है सो लेके आते है।  
                                मनसुख के गांव की नियति है बाढ़ ,कोई पहली बार नहीं आया है ,सालो से वह अभ्यस्त है ,इन हालातो का। हर साल इस समय में नेता सब आते और वादा करते की अगले बरस अब इसका मुख मोड़ देंगे। किन्तु मनसुख काफी समझदार था ,आखिर गांव के सरकारी स्कुल से आठवी पास जो था।  मनसुख ऐसा नहीं है की हर बात को लेकर बस सरकार को कोसने लगे।अब सरकार के बस में तो नहीं है की वो बाढ़ को यह कहकर रोक दे की इसके लिए परमिशन नहीं लिए। लेकिन मनसुख को ये भी पता है की कई दफा उसके गांव में बाढ़ , रौदी (सूखा) के दिनों में भी सरकारी फाइलों में बहा है। जैसे बाढ़ खेतो के लिए उपजाऊ मिटटी लाती है सरकारी बाबुओ के लिए भी अपनी उर्वरकता को  सींचने का भरपूर मौका देती है। सो मनसुख खेत के बारे में सोच कर खुश था ,बाबुओ के विषय में सोचने के लिए तो सरकार है ही। किन्तु आज पेट की आग कुछ ज्यादा ही परेशान कर रहा था। करता भी क्या उसकी मेहरारू भी जो बच्चो के साथ मायके गई थी ,बाढ़ में फसी सो अभी तक लौटी नहीं। 
                           अब काका आये तभिये कुछ खाने पीने का बंदोबस्त हो। कल राते में सोते समय जब मेघ घुघुआ रहा था ,कोने में छप्पर कि छाती चीरकर एक धार कोने में गिरने लगा तो काका बोले -
मनसुखवा काले इस धार को मोड़ लेना ,नहीं तो पता चलेगा हम दोनों एकरे साथ तर गए।  मनसुख बोला -हाँ काका एक पुराना प्लास्टिक है कल बिहाने बांध देंगे। सो मनसुख सोचा अब जब तक काका नहीं आते तब तक ई काम निपटा ले। 
          ऐसे गांव में चहल-पहल कुछ बढ़ने लगा था।आखिर दो-तीन दिनों के बाद आसमान में कब्ज़ा जमाय कालिख कुछ -कुछ छटने लगा था। कुछ लोग गर्दन उठा -उठा कर सूर्य देवता को तरस भरी आँखों से ढूंढ रहा थे तो कोई अपने खेतो के समंदर रूप पर दुखी या खुश था चेहरे कुछ गवाही देने को तैयार नहीं था।कुछ तो बाकायदा खेतो और तालाबो के बीच बहती उलटी धार को देख मन ही मन खुश हो रहा था शायद आज माँछ -भात का भोग लग जाए।  
            मनसुख कोई मेघदूत तो नहीं पढ़ा था,लेकिन सुना अवश्य था।उसके मन में विचार उठा कि काश ये भागते मेघ हमारे मेहरारू को खबर कर देता कि -तुम्हारी याद सताती है , जिया  में आग लगाती है।किन्तु मेघ जाने कहाँ नजर फेरे सोचते ही विचार गर्म तवा पर भाप की तरह उड़ गया। और कहता भी कैसे  भागते मेघ ऐसे लग रहे थे जैसे उसने ओवर टाइम कर रखा हो और घर जाने की जल्दी में है। सो मनसुख के मन में उठे विचार उस तक शायद नहीं पहुच पाए।   पिछले साल से ये प्यासी धरती की सूखा के कारण कोई फसल नहीं हो पाया अबकी का इसको पानी से लबालब धरती की पानी से लहूलुहान धरती कहे -कुछ कुछ ख्याल मनसुख आते ही रहते है सो अब यही सोचने लगा।  खैर मनसुख को किसी से कोई शिकायत तो रहता नहीं सो वो काका के कहे अनुसार छप्पर पर बैठ कर अब प्लास्टिक को उससे ढकने में व्यस्त हो गया। 
           अब काम पूरा कर मनसुख अनमने सा नजर उठाया तो देखा क़ि काका कंधे पर बोरा में कुछ भरे बढे आ रहे है।  टिप-टिप बारिस तो चल ही रहा था किन्तु मनसुख काका को देखते जैसे फिर गुनगुनाने लगा और जल्दी -जल्दी छत पर से निचे उतरने को हुआ की काका ओहि से चिल्लाये -अरे मनसुखवा आराम से नीचे फिसलन हौ ,गिरले से बस   .... 
    खैर मनसुख अपने ही अंदाज में उतारकर निचे आया तब तक काका भी आँगन में पहुच गए और सामान से लदा बोरा कंधे से निचे रखने को हुआ कि मनसुख बोल पड़ा - ए काका भीतर आ जा अबीहो बारिस टिपिर -टिपिर है।  
तो ले भितरे रख न अब सब काका करतौ का -रोष भरे स्वर अपनापन को निहित कर रखा था। 
मनसुख चुपचाप सामान लेकर भीतर रखकर बोला -बड़ा देर लगा देले काका। 
न वहां तो मीना बाजार लगे रहे सो वोही देख रहे थे काका के चेहरे पर भूख की  कुछ तुनकी छा गई। 
न काका हमरे कहे के मतलब रहे की लगता है वोहाँ भीड़ बहुत रहे मनसुख बात बदल दिया। 
अब इतना दिन से देखते-देखते तो आज सामान बटले ,कोनो कीर्तन तो रहे नहीं कि लोग भगवान् के हजारी लगा के निकल जाय वहां प्रसाद रहे जब तक नहीं मिले लोग आवे कैसे । सो सब कोई आइले रहे। और अबे काल में अपन खद्दर वाला जकरा भोट दिए , न जाने हमारा सब के देखे आइल रहे की ई नजारा के देखे ,फोटो खिचबे में लगले रहे। के काका उ नेतवा-मनसुख बोला  
हाँ रे ओही ,रास्ते में जे गांव रहे वहां नेताजी हाल-चाल पूछे आयले रहे। तो ओकरे सुने में तनी रुके रहे। का बोले रहे थे मनसुख वाकिफ था फिर भी पूछा।  का बोलेगा ओहि सब जे चुनाव के समय में बोलत रहे। बोल रहे थे गंगा मैया दर्शन देवे घरे पर आई है। बाकी तो हर बार उ का कहत हाउ आयोग ओइसने कुछ और बनला से अब अगला साल से कोनो परेशानी ना होतौ ,से कहत रहे। 
मनसुख इन बातों से अब अभ्यस्त था सो काका की बातो पर ध्यान दिए बिना खोला की देखे किया-किया सरकार ने दिया है। बोरे में चुड़ा और चावल की पोटली बनी थी। 
ए काका ई का मिला है -मनसुख बोला 
जो तू देख रहा है वोही है और का। 
न काका हमर मतलब था की राहत के नाम पर बस इतना सा ही- मनसुख को कुछ खींझ हुआ। 
तो इतना का कम लग रहा है। वो तो बड़ा भलमानुस बाबु है की उतनो दे  देलौ। 
कुछौ कह लेकिन सब बड़ा ख़ुशी ख़ुशी सामान सब बाटत रहे। न तो ई बाबू सब आज कल कौनो काम करे चाहे है। 
लेकिन काका हमारा सब के परिवार के हिसाब से कितने मिले के रहे। 
अब हम उहाँ सामान ले की हिसाब-किताब करे -काका बोले उ बाबु और कहत रहे फेर कुछ दिन बाद सामान आएगा तो बाटेंगे।
मनसुख को सबके ख़ुशी-ख़ुशी सामान बाटने वाली बात से बस काका कि तरफ देखता रहा ,आखिर काका है भी उसी पीढ़ी के कि जो ऐसा सोच दिमाग में भी नहीं आते। किन्तु मनसुख दुनियादारी तो सिख चूका है और उसे समझते देर नहीं लगा कि वो ख़ुशी -ख़ुशी बांटे ऐसा भी कही होता है यहाँ ,हाँ वो बाँट-बाँट कर अवश्य खुश हो रहे होंगे कि ऐसे बारिश हर साल आये और इनके छीटे उसके भी ऊपर पड़ते रहे। 
किन्तु मनसुख कुछ न बोल बस काका से धीरे से कहा - काका जाओ अब पाव हाथ धोबे आओ जो है उसको ही भोग लगाते है। साथ ही साथ गुनगुना रहा था-        
                           ककरा के घरे भड़े आयलहँ रे बदरवा 
                         जोगीया  के वेश में अब घूमे है डकैतवा 
                         काहे नहीं जा का बसे वोहाँ पर ए बदरा 
                         सुख गइले जकराअंखिया में पानी के कतरा।।  
                          ककरा के घरे भड़े आयलहँ रे बदरवा।।  ......  .

Thursday 25 August 2016

बच गेले तो जेल और ऊपर गइले तो चेक


मनसुख बहुत परेशान है ,समझ नहीं आ रहा ये का हो रहा है , भला ये भी कोई बात हुई ऐसे जिंदगी भी कोई जिंदगी है। का दे रही ई सरकार हमको। ऐसा कही होता है का।पहले तो खुद हि बाँट -बाँट के भोट लिया और अब ओहि पर  पहरेदार बिठा दिया।और कुछ सोचता   तब तक काका ने आवाज दिया -
का रे मंसुखवा वहां अकेले -अकेले किससे बतिया रहे हो।
केहुओ से न काका- मनसुख सकपकाया जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो।  न काका बस ऐसे ही सोच रहे थे ,धीरे से कहा।
ऐसे ही का रे ,मनसुख के आखो का दर्द काका पढ़ने कि कोशिस कर रहे थे।
बस काका हम तो ऐसे ही सोच रहे थे की अब आगे क्या होगा।
अरे आगे क्या होगा से क्या मतलब। जैसे हर बार होता आया वैसे ही होगा ,बाढ़ अइबे करेगा ,सूखा सुखइबे करेगी ,बचा-खुचा से जैसे चलता है चलबे करेगा और का।
न काका,उ सब तो हमहू समझते है। मतलब  काका हम कह रहे थे कि जैसे लगता है रौनक अब नहीं रहा अब लौटबो करेगा कि नहीं।
अरे मचन्ठा कौन रौनकबा की बात कर रहे हो। कहा गया की नहीं लौटेगा।
 न काका हमारे कहने का मतलब है की अब कोनो ख़ुशी -वुशी जब आबेगी तो उतना मजा नहीं आएगा।
कौन खुशिया आ रही रे तू तो बताया नहीं और कब आबे वाली है। काका की झुर्रिया पूछते ही चहक कर चेहरे पर छा गई।
ओहो ,न काका तुहु समझत नहीं हो ,हमार कहे के मतलब है कि शादी वियाह में जब तक उ ना हो न. तो मजा नहीं आबत है। अरे मंसुखवा ई का बोल रहा तू ,का फेर से फेरा के चक्कर में है का। काका अपनी त्योंरि को चढाने का असफल प्रयास कर रहे थे।
अरे नहीं काका तुम्हो न, का हम बोले- रहे दो अब। तुम्हार उम्रे  नहीं रहा तो हम का बोले चाह रहे है और तुम हो की का समझ रहे हो  काहे से समझोगे। रहे दो चलो खेते पे चले। न -न बोल न का तोहरे मन में चल रहा है-काका अब खुशामदी स्वर में  धीरे से मनसुख से बोले।
न काका हम कह रहे थे की अबकी बार जो होली-ओली आबेगी उसमे मजा नहीं आएगा। लगता है बिलकुल फीके -फीके ही जायेगा।
अब काका का दिमाग प्रशासन की सुस्त गति से चल कर  कुछ-कुछ समझने लगा था । लग रहा था जैसे-जैसे बात काका समझ रहे थे  दिल की टिस चहरे पर उठ रही थी। किन्तु फिर भी बोले -का रे अभिये फगुआ का कहा से आ गया।  तबहो काहे फीका होगा रे होली ,खूब जम के फगुआ और चैती गाबे जायेगा और होली के भोरे से बस छक के - किन्तु उसके आगे लगा जैसे काका को झटका लगा और चुप। यहाँ के दरोगा सस्पेंड हो गया कलही तो मनसुख बताया था।
किन्तु मनसुख को काका के गुजरे अनुभव पर कुछ भरोसा जगा और मनसुख थोड़ा चहक के पूछा कैसे छक के काका। मनसुख सोच रहा था जैसे काका को कोई जुगार लग गया हो। आखिर जुगार से यहाँ का नहीं होता और अब तक सारे काम तो जुगाड़े पर हुआ है चाहे इंदरा आवास हो या मनेरगा कि मजदूरी। जुगारपूर्ण देश में इस कला में  निपुण लोगो के लिए कुछ भी असंभव नहीं है और ये कोई विशेष बात तो नहीं।
तब तक काका खजूर पर लटके डाबा को देखकर बुदबुदाए -रहे दे मनसुख अब ऐसे हि फगुआ मनतौ,अब ओकरा से ध्यान हटा ले ,  बचेले से कुछो न मिले वाला है, बच गेले तो जेल और ऊपर गइले तो चेक।
मनसुख बुदबुदाया जैसे होली का जोगीरा गा रहा हो  -
वाह सरकार - वाह सरकार
चौक चौराहा द्वारे-द्वारे भठ्ठी सब खुलबा दियो
दिए जहर कि तुम्ही पुरिया अब इंजेक्शन लगबए रियो
वाह सरकार -वाह सरकार।।

आदिपुरुष...!!

 मैं इसके इंतजार में था की फ़िल्म रिलीन हो और देखे। सप्ताहांत में मौका भी था। सामान्यतः फ़िल्म की समीक्षा फ़िल्म देखने से पहले न देखता हूँ और न...