Saturday 17 June 2023

आदिपुरुष...!!

 मैं इसके इंतजार में था की फ़िल्म रिलीन हो और देखे। सप्ताहांत में मौका भी था। सामान्यतः फ़िल्म की समीक्षा फ़िल्म देखने से पहले न देखता हूँ और न सुनना पसंद है। किंतु पता नही कितने फिल्मों के बाद ऐसा हुआ है कि सोसल मीडिया पर जहां भी जा रहा हूँ, यही फिल्म छाया हुआ दिख रहा है। 

                    बहुत दिनों के बाद ऐसा हुआ है कि फ़िल्म अपने टीजर के साथ-साथ रिलीज होते ही जैसे सबको मंत्र मुग्ध कर दिया है। हर कोई फ़िल्म निर्देशक और पटकथा लेखक की जमकर कसीदे गढ़ रहा  है। वैसे तो कथा पहले से ही मौजूद था सिर्फ संवाद पर उन्होंने अपना पसीना बहाया है। पसीने से लिपटे संवाद में लवण की मात्रा तो आना ही था और बॉलीबुड इस मामले में पहले से ही नमकीन है। 

                       फ़िल्म निर्माता-निर्देशक के मेहनत का अंदाज आप लगाइए, कैसे उन्होंने मशक्कत करके युगों के फासले को पाट दिया। दर्शक तो इसी से भाव-विभोर लग रहे है, जब उनको अनुमान था कि वो त्रेता की पृष्ठभूमि रचेंगे। लेकिन उनकी खुशी और आश्चर्य का ठिकाना नही रहा जब उन्होंने देखा कि अरे कलयुगी भी क्या कहे, बिल्कुल बॉलीबुडी-युगी के धरातल पर कथानक और संवाद को पिरो दिया है। कितना दुष्कर कार्य है और वो भी इस वर्तमान दौर में जब कोई कब आहत हो जाए, हमे पता ही नही चलता। रचनाकार वाकई बधाई के पात्र है कि उन्होंने आहत और अनाहत के बीच के माध्यम मार्ग रचा है।अब देखे आगे इसपर कौन चलता है। खैर..फ़िल्म की बात।

                     यह देख और पढ़-सुनकर इन महान कला के विभूतियों के प्रति मेरा मन श्रद्धा से भर गया। आखिर किसी के मूल रूप का अनुकृति भी कोई "क्रिएटिविटी" होती है। "क्रिएटिविटी" तो वो है जो "आदिपुरुष" के साथ वर्तमान के इन कला-महापुरुषों ने किया है। ताकि देखते ही आपका मष्तिष्क सृजनशील होकर इस विश्लेषण में लग जाये कि आखिर "आदिपुरुष" वाकई "राम-गाथा" है या कुछ और..! और जो आपके विचारों को झकझोर कर रख दे वही तो असली सृजन है।साथ ही साथ यह विश्लेषण आपको आनंदित करके रख देगा और आपको आनंदमय कर दे, यही तो निर्देशक का धर्म है। 

                आप बेशक इन बॉलीवुड के सृजनशील उद्द्मियो पर प्रश्नचिन्ह लगाए, लेकिन मैं तो इनको मन ही मन नमन करता हूँ।इस "कलात्मक-सृजनात्मकता" की पराकाष्ठा का  अनुमान तो मैं इसी बात से लगा लिया कि दो-चार लाइन पढ़ते ही पूरा फ़िल्म आंखों के सामने चलने लगा।

                  इससे पहले की दो चार लाइन इनके गुणगान स्वरूप मैं कुछ और लिखता , तभी किसी कोने से मेरे कान में जैसे ये आवाज गूंजने लगा-" पैसा मेरा, निर्देशन मेरा, कलाकार और वीएफएक्स भी मेरा और बजेगा भी मेरा"....तुझको क्या.? तो कैसी लगी..!

                 अब बीड़ू भाई तुम ही जानो, अपुन तो अब तक देखा नही है....!

Monday 20 January 2020

नए अध्यक्ष..


   जब प्रधानमंत्रीजी छात्रों को परीक्षा के टिप्स बांट रहे थे उस समय नड्डा जी अध्यक्ष के छात्र रूप में चुन लिए गए। परीक्षा तो अब इनकी कक्षा में कई होने लेकिन अगला पेपर बहुत जल्दी दिल्ली में होने वाला है। इनकी तैयारी का जायजा उसके बाद ही लिया जाएगा। कल आज और कल के कई मार्गदर्शक अलग अलग भाव भंगिमा में लिए नए अध्यक्ष को शुभकामनाएं देने कर्तव्यानुसार उपस्थित हो गए। नड्डा जी वैसे तो हिमाचली है लेकिन बिहारीपन ज्यादा है।

     वैसे नड्डा जी ने अपना भाषण समाप्त करते हुए सिर्फ "जय भारत" का उद्घोष किया। जबकि उनके पूर्ववर्ती सदा की भांति भारत माता की जय और अंत मे वंदे मातरम के साथ अपना उद्घोष समाप्त किया। नड्डा जी की इस "जय भारत"  सांकेतिक उद्घोषणा सामान्य माना जाय या अपने कार्यकाल में वो पार्टी के सिलेबस में कोई बदलाव की तैयारी है।इस पर राजनीतिक विश्लेषक चिंतन की नई लकीर खिंच सकते है।
         वैसे उनके पूर्ववर्ती ने जो लकीर खिंच दी है,उससे बड़ी लकीर खीचना वाकई में नड्डा जी के लिए एक दुरूह कार्य होगा। लेकिन अब जब उन्होंने ये दायित्व लिया है तो अवश्य उसके लिए प्रयत्नशील रहेंगे।...नड्डा जी को अध्यक्ष चुने जाने पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।।

Sunday 19 January 2020

नागरिकता और विरोध

             मनसुख अघाया-अघाया से दालान के बाहर सुख रहे पुवाल पर लेटा है। सुबह के काम से फारिग हो रखा है। हाथ मे कोई अखबार का पन्ना है। मनसुख पढ़ने में लगा है। सदा की भांति कक्का वही कोने में बैठ कर ऊपर निखर आई धूप में बदन सेकने में लगे है। हाथ मे शायद खैनी को मसलने में लगे है।संक्रांति बीत गया है। कुछ दिनों में सूर्य धुंध की चादर में लिपट कर नई-नवेली दुल्हन जैसे घूंघट में चेहरा छुपा कर रखती है।वैसे ही मुँह छिपा कर अस्त हो जाता था। लेकिन अब इन सबसे जैसे विद्रोह कर दिया है। अब तो भोर हुई नही की लाल-लाल घूंघट उठाकर सूर्य ने चहलकदमी शुरू कर दिया। उस ताप का मजा मनसुख और कक्का दोनों ले रहे है। मनसुख को अखबार पढ़ता देख कक्का बोले-का रे आज का अखबार है का। कोनो खास खबर है..?मनसुख जैसे हल्के से सुरूर में था। कहते है इस ऋतु में सूरज का ताप से शरीर मे नशा चढ़ता है और आंख भी भसियाने लगता है। मनसुख भी जैसे किसी खुमारी से जगा और बोला- नही कक्का, काले का अखबार है।बस ऐसे ही पढ़ रहे है।
कक्का- तो कल के अखबार में ऐसा का लिखा है कि नजर तब से वोही में गड़ाये रखे हो।
मनसुख- कक्का अखबार में लिखा है कि अब सरकार कोई रजिस्टर खोलने जा रहा है। उसमें सबको अपना नाम-पता लिखवाना है। फिर सरकार कुछ देश के नागरिकों को यहां पर नागरिकता भी देगी। इस सबका का विरोध जनता कर रही है।दिल्ली के एक विश्वविद्यालय में कुछ छात्रों ने आगजनी और हिंसा भी किया है।
कक्का- इसमे का नया बात है, हर बार तो उ स्कूल के मास्टरजी जनगणना में हम सबका नाम-पता भर के ले ही जाते है। तो इसमें नया क्या है?
मनसुख- कुछ लोगो का कहना है कि सरकार ई सब करके पता करेगी कि कौन यहां का नागरिक है और कौन नही। फिर जो यहां का नही होगा उसका क्या...?
कक्का- तो जो यहाँ का नही है, वो सब विरोध कर रहे है।
मनसुख-अरे कक्का जनता सब यहीं की है, उनको डर है कि सरकार इस बहाने कुछ लोगो को नागरिक नही मानेगी तब, अगर उसके पास कोई पहचान पत्र नही हुई तो...।मनसुख जैसे विरोध करने वालो से सहमत दिख रहा था।लेकिन कक्का को इस कानून में अपनी समझ से कुछ नया नही दिख रहा था।
कक्का-देख बेटा, जिसकी ये माँ, ये मिट्टी है उसको किस बात का डर है। हां, जिसको मिट्टी का सौदा करना है उसको हो सकता है, डर लग रहा हो। फिर बेटा ये विरोध कहा गाँव मे भी हो रहा है।
मनसुख- नही कक्का ये सब विरोध में शहरों में हो रहा है। पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी सब इसमे शामिल हो रहे है।मनसुख कुछ-कुछ सोचने की मुद्रा में आ गया।
कक्का ने अब तक खैनी को रगड़ कर दो थाप मारा और चुटकियों में दबा कर उसे ओंठों में दबा कर दार्शनिक मुद्रा में बोलने लगे- इसका मतलब है बेटा गाँव मे पढ़े-लिखे समझदार नही है क्या..?उनको विरोध करने को क्या किसी ने थोड़े ही रोका है। ये शहर वाले जिसको तुम पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी बता रहे हो न, वो पढ़े लिखे होते तो अपने ही शहर को जलाएंगे। ये कुछ और नही बस जब पढ़े-लिखे मूढ़ है।वैसे बुद्धिजीवी का आजकल तो देख रहे हो।जिनका  जीव लपलपाना बुद्धि के अनुरूप बढ़ता है। वैसे ही बुद्धिजीवी भरे पड़े है।इनका का है। बाकी पार्टी सब ताके में रहते है।विरोध के लिये विरोध करना तो अपने यहाँ फैशन है।नागरिक अपने नागरिक होने से डरने लगे तो मिट्टी की निष्ठा संदिग्ध है। फिर कक्का अचानक रुक गए और मनसुख से पूछा- अरे हमरे वाला वोट पहचान पत्र जो पिछले बाढ़ में गुम हो गया था, वो बना की नही..?
मनसुख ने कहा- कक्का उसके लिए ब्लॉक में आवेदन दिए है, बताया कि जब बनेगा तो बताया जाएगा।
कक्का- बेटा ये कागज के पहचान पत्र सरकारी कवायद के लिए बेशक ठीक हो,क्योंकि सरकारी काम तो चलने है। लेकिन सिर्फ कोई कागज का टुकड़ा किसी की पहचान उसकी मिट्टी से थोड़े ही छीन सकता है। कहते-कहते जैसे कक्का भूत में खो गए, जबकि मनसुख उस भूत और वर्तमान के मध्य उभर आये कई अन-गढ़ी तस्वीर तैरने लगे।

Friday 3 August 2018

कुल्लड़ में चाय ....

बात ईसा पूर्व की है...लगभग 2700 वर्ष...। चीन के सम्राट के हाथ मे गर्म पानी का प्याला था और मचलती हवाओ ने कुछ पत्तो को अपने संग लाया और उसे सम्राट के प्याले में डुबो दिया। पर सूखे पत्ते की गुस्ताखियां देख जब तक सम्राट अपने चेहरे का रंग बदलता गर्म पानी ने अपना रंगत बदल दिया और वाष्प ने अपने संग विशेष खुसबू से सम्राट को आनंदित कर दिया। एक चुस्की पीते ही वह समझ गया कि वह भविष्य के लिए एक और पेय पहचान लिया है और फिर चीन से पूरी दुनिया में फैल गया।
             भारत मे जैसे हर चीजे अंग्रेजो की देन मानी जाती है वैसे ही यह पेय भी उन्ही का देन माना जाता है....उससे पूर्व असमी जो पत्तियों को खौला कर पेय बनाते थे उसे क्या कहा जाय पता नही....?जब तक आप किसी भी चीज का व्यवसायिक दोहन नही करते है तो मुफ्त तो मुफ्त होता है। तो अंग्रेजो ने इसका व्यवसायिक दोहन कर इसके साथ अपना नाम जोड़ लिया ।
           उस समय इसे जो भी कहते पता नही....लेकिन आजकल इसे "चाय" कहते है। बाकी तो आप सभी  इससे परिचित है। इसमें खास कुछ नही है.....बस आज सुबह-सुबह कुल्लड़ में चाय चाय मिल गई..।। अब कुल्लड़ धीरे-धीरे विलुप्त ही होता जा रहा है। एक बार तत्कालीन रेल मंत्री ने 2004 में ट्रेन में मिट्टी के कुल्लड़ चलाया भी लेकिन कुछ सालों बाद मंत्रीजी का राजनैतिक जीवन मिट्टी में मिल गया और आगे चलकर रेल ने भी इस मिट्टी के प्याले से किनारा कर लिया। खैर.....।।
           आज सुबह-सुबह कुल्लड़ देख चाय नही जैसे कुल्लड़ ने अपनी ओर खींच लिया। प्याले में चाय भरते ही चाय ने अपनी तासीर बदली और मिट्टी की सौंधी खुसबू चाय के साथ मिलकर उसके स्वाद को एक अलग ही रंग दे दिया हैं।जो आपको किसी और कप में नही मिल सकता।
           जब धरती ही स्वयं के अस्तित्व के लिए संघर्षरत दिख रही हो तो कुल्लड़ का क्या कहना..?अतः सुबह-सुबह जब सिंधु घाटी सभ्यता से  यात्रा कर पहुची कुल्लड़ फिर आपके हाथ लग जाये और जो सभ्यता के मध्याह्न से प्रचलित पेय से लबालब भरा हुआ हो तो आप चाय के हर चुस्की के साथ सभ्यताओ के बदलते जायके को महसूस करने की कोशिश कर सकते है।इस एक प्याले में जब जीवन के मूलभूत पंच तत्व -थल(कुल्लड़) ,जल (चाय)  पावक( इसकी गर्माहट ), गगन  के तले ,समीरा(चाय का वाष्प) जब एक-एक चुस्की के साथ आप के अंदर समाहित होता है।तो आप महसूस कर सकते है कि  एक प्याला कुल्लड़  से भरा चाय आपको कितने ऊर्जा  से ओतप्रोत कर देता है। 
       जगह और स्थान कोई भी हो मिट्टी में बिखरे आनंद को ढूंढे ...नाहक क्षणों को मिट्टी में न मिलाये।सभ्यता के आदिम रूप जहां बिखरे है वही सभ्यता के भविष्य का रूप है..ये आप समझ ले।तो फिर एक प्याला चाय कुल्लड़ में मिल जाये तो भूत और भविष्य एक साथ एकाकार हो जाते है और ये सर्वोत्तम आनंद का क्षण है....एक कप कुल्लड़ में चाय... है कि नही??
              अंत मे हरिवंश राय बच्चन की "प्याला" शीर्षक कविता की दो पंक्तियां-
            मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
            क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
   

Tuesday 19 June 2018

...ओ मेरी महबूबा...।।

मनसुख आज तैश में था। गर्मी की उफान उसके चेहरे पर उभर उभर कर आने वाले पसीनो के बूंदों में झलक रहा था। वह कुट्टी काटने वाली मशीन को जोर जोर से घुमा रहा था। बीच बीच मे वह घास की बंडल मशीन में डालते समय रह रह कर पसीने पोछता और गुनगुनाता-- महबूबा...महबूबा...ओ मेरी महबूबा
काका वही बगल में पेड़ की छाया में दोपहरी से लड़ने के लिए लेटे हुए है।
काका-का रे मनसुख ई मेहरारू के काहे इस दोपहरिया में याद कर रहा है...
मनसुख झेप गया। न काका वो तो हम महबूबा के बात कर रहे है।
काका- अरे अब कोनो दोसर मेहरारू तो नही ले आये।
मनसुख- का काका तू भी बुराड़ी में अंट-शंट बकते रहते हो। तुमको कुछो देश दुनिया का पता रहेगा तब न समझोगे।
काका- का रे अब ऐसा का हो गया
मनसुख- कश्मीर में महबूबा की सरकार गिर गई है तुमको कुछो पता है।
काका के चेहरे पर मंद मुस्कुराहट उभर गया और बोला- उ तो हम पहले ही बोले थे कि ई साँप-छुछुन्दर एके बिल में कब तक रहेगा। तब तो तू बाद खुश होकर बता रहा था कि अब कश्मीर फिर से स्वर्ग बन जायेगा।ई सरकार बड़ा सोच समझ के कुछ करती है। फिर का हुआ अचानक की भाग गए कश्मीर से।
मनसुख- देखो काका ई सब राजनीति की बात है...तुमको समझ नही आवेगा।
काका-यही तो हम भी कह रहे है कि ई सब राजनीति की बात है तू नाहक खुश हो रहा है।तू ही बता तू काहे खुश है?
मनसुख-देखो काका अब कश्मीर की हालत से समझौता नही कर सकते। वहाँ अब स्थिति ज्यादा खराब हो गई है।
काका-तो अब तक का खाली महबूबा...महबूबा कर के झाल बजा रहे थे। किसने रोका था कश्मीर को सुधारने से।अब तक तो लगता है यही गा रहे थे...महबूबा मेरे जो तू नही तो कुछ भी नही है...जो तू है तो कश्मीर कितनी हँसी है.....और अब अचानक..।
मनसुख-काका ई कोनो बिहार की राजनीति नही है जो तुमको सीधे-सीधे समझ मे आवेगा।यहां बहुत कुछो सोचना पड़ता है। बगले में पाकिस्तान मुँह बाये खड़ा है। तुम का समझोगे..?
काका- बेटा ई पाकिस्तान की झुंझना सुनते - सुनते बाल सफेद हो गए और तुमरो सरकार को देख लिया। ना कुछो मिले तो बस पाकिस्तान और धर्म खतरे में है का ढोल पिटने लगो। तुम कह रहे थे न देखना अब कैसे उग्रवादी सब दुबक जायेगे लेकिन उ सब तो वैसे निकल रहे है कि जैसे कुकुमुता का छता निकल रहा है। फिर कुचलते काहे नही। बस तुम सब ढिढोरा पीटते रहो।इससे बढ़िया तो मौनी बाबा थे कुछ तो करते होंगे बेशक कहते नही....।
मनसुख-काका तुम का समझोगे सब तो वही सब का किया धरा है।
काका-तो इनको मौका भी तो इसी लिए दिया था।अब न कुछ कर पाए तो बस बहाने बनाओ..।
मनसुख- काका तुम कुछ भी कह लो लेकिन ई जो कुछ भी करते है सोच समझ कर करते है, देशहित पर ये समझौता नही कर सकते।
काका-बेटा तुम सब यही सोचकर खुश रहो...आखिर घुट्टी जो पी रखे हो...यह तो सही है कि सोच समझ कर करते है ,लेकिन इसमें हित किसका है यह तो समय ही बताएगा। लेकिन सब तो यही कहेंगे इतने चौड़े सीने वाले को महबूबा ने पटकनी दे दी और ये पूंछ दबा कर कश्मीर से भाग गए लेकिन तुम जैसे मूढ़ तो बस अपने नशा में चूर रहो...।
मनसुख को काका की इन बातों का जैसे कोई असर नही हो रहा और वह अपने धुन में गुनगुना रहा है--महबूबा....महबूबा....ओ मेरी महबूबा...।।

Tuesday 2 January 2018

नव वर्ष मंगलमय हो.......

                  सब कुछ यथावत रहते हुए भी , खुश होने के कारण तलाश करते रहे। बेशक आप इस बात से वाकिफ है कि कैलेंडर पर सिर्फ वर्ष नए अंकित होंगे , लेकिन वो स्याही और पेपर यथावत जो चलते आ रहे है वही रहेंगे। फिर भी एकरसता के मंझधार में फसने से बेहतर है कि इन लम्हो को ज्वार की भांति दिलो में उठने दे और कुछ नहीं तो वर्ष की पहली किरण में  मंद बयार के साथ पसरी हुई ज़मीन पर ओंस के बूंदों पर झिलमिलाती किरणे प्रिज्म सदृश्य कई रंग बिखेर रहा हो उसको देख आनंदित होने की कोशिश करे। कही दूर मध्यम और ऊँची तान में कोई चिड़िया चहक रही हो तो दो मिनट रूक कर उसे मन के राग के साथ आंदोलित होने दे। उससे छिटकने वाली राग को बाढ्य नहीं अंतर्मन के संसार में गूँजने दे।
                        सिमटती दुनिया के एकरुपिय निखार में बहुत कुछ समतल हो गया है जहाँ ख़ुशी और अवसाद के बीच में स्पष्ट फर्क करने में भी अब कठनाई है।
हर वक्त याथर्थ के धरातल को ही टटोलना जरुरी नहीं है, कुछ पल ऐसे ही दिनों के बहाने कल्पना के सृजनलोक में विचरण कीजिये। 
नव वर्ष मंगलमय हो.......

Tuesday 28 November 2017

मन की बात


फिर भी वो दांत निपोडे हँसता रहा...ही..ही..ही..।
कल्ले में एक ओऱ दबाये पान मसाला के प्रोडक्ट को थूक संग समिश्रित करता, गर्दन को धीरे से घुमा कर...आक थू....। उत्पाद के रस निचोड़ने के बाद त्याज्य पदार्थ उत्सर्जित कर दिया।
मनसुख को कदम पीछे हटना पर गया...।
उसके बत्तीसी अब भी सतरंगी छटा बिखेर रहा था। जिसपर कालाधन के साथ साथ अन्य रंगों ने कब्ज़ा जमा लिया है। अब भी यूँ ही दांत निपोडे हुआ है।
भैया आप तो बस हमें ही टोकते हो....का हो गया जो हम थोड़ी सी अपने मन की बात कह गए। सब तो अपने मन की बात कह रहे है...उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता। हमारे मन में तो बस इतनी बात है कि अब भावनाएं बहुत कम बच रही है सो काहे सब भावना से खेलते रहते है। और भौया सच कहूं तो कुछ काम धंधा रहे तब न ....अब खली बैठे है सो थोड़ा हम भी अपने मन की बात कर लेते है...थोड़ा टाइम पास हो जाता है...ही..ही...ही...। इस्टमेनकलर में दांत फिर से उसने दिखा दिया।
देखो बेकार की बातों का कोई मतलब तोड़े ही न है...। बात मतलब की करो न....।
उसने फिर केसरिया सुपारी के दो छोटे टुकड़े को जैसे अपना काम निकल जाने के बाद पार्टी साइड कर देती है,  बिलकुल उसी अंदाज में बाहर फेंक कर बोला-
यहाँ कौन मतलब की बात कर रहा है...। सब तो अपने ही मन की बात कर रहे है।तुम्ही बताओ भैया.....अब आलू से सोना निकलेगा इसमें का मतलब है ई का मन का बात नहीं हुआ।
अरे कहा कि बात कहाँ जोर रहे हो। मनसुख उसकी बातों को समझने की कोशिश कर रहा ।
अच्छा तो ई जो भंसाली साहब सेंसर बोर्ड से पहले "बुध्धु बॉक्स" के संपादक के पास पहुच गए ई का उनके मन का बात नहीं हुआ। हम तो पहले काहे थे की हमलोगों को पाहिले दिखा दो सो तो माना नहीं ।
लेकिन ये भी तो हो सकता है कि वो अपनी फिल्म के प्रोमोसन के लिए ई सब कर रहा है....।
तो का इससे हम सबका प्रमोसन नहीं हो रहा है...। हौले से मुस्कुराकर बोला । इस बार दांत पर होठो का बुरका लग गया।
   और भैया तुम नाहक काहे परेशान हो रहे हो । लोकतंत्र है....। जनता का जनता के द्वारा जनता के लिए किया जाना है। देखो ऊपर से नीचे तक सब अपनी मन की बात सुना रहे है। तुम भी सुना दो अपने मन की और क्या......ही...ही....ही....।
मनसुख उसकी थ्योरी को समझने के प्रयास में सर खुजाने लगा।

आदिपुरुष...!!

 मैं इसके इंतजार में था की फ़िल्म रिलीन हो और देखे। सप्ताहांत में मौका भी था। सामान्यतः फ़िल्म की समीक्षा फ़िल्म देखने से पहले न देखता हूँ और न...